“ठहरा है कबसे यहाँ तू, जैसे कुछ अटक सा गया है,
भले हो तंग, डगर आगे की, हिम्मत बनाकर जरा,
तू चल उस तरफ
अंधेरों से घिरा हुआ तू, क्यूँ कालिख मे खड़ा है?
रौशनी की दिखती है जो, छोटी ही हो लौ भले,
तू चल उस तरफ
चुभने लगा है कुछ शायद, अब ये रेशम भी तुझे,
उस परे, कुछ खुरदुरा ही सही, पर आंचल ही है,
तू चल उस तरफ
लाद कंधों पर, ग़म और फ़िक्र को, बहुत है ढोया तूने,
अनजान ही सही, हल्का दिखता है बेफिक्री का वो आसमान,
तू चल उस तरफ
बहुत थामे हैं हाथ तूने, जानों अनजानों को संभाला है,
अब वक़्त है,संभाल अपने आप को, थामे हाथों मे खुद ही को,
तू चल उस तरफ “
-Purvi Gokani.
