“ठहरा है कबसे यहाँ तू, जैसे कुछ अटक सा गया है,भले हो तंग, डगर आगे की, हिम्मत बनाकर जरा,तू चल उस तरफअंधेरों से घिरा हुआ तू, क्यूँ कालिख मे खड़ा है?रौशनी की दिखती है जो, छोटी ही हो लौ भले,तू चल उस तरफचुभने लगा है कुछ शायद, अब ये रेशम भी तुझे,उस परे, कुछ खुरदुराContinue reading ““तू चल उस तरफ…””